लेख-निबंध >> छोटे छोटे दुःख छोटे छोटे दुःखतसलीमा नसरीन
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जिंदगी की पर्त-पर्त में बिछी हुई उन दुःखों की दास्तान ही बटोर लाई हैं-लेखिका तसलीमा नसरीन ....
मनी, मिसाइल, मीडिया
उन जैसा शक्तिशाली और कौन है? उनके पास धन-दौलत है, बम और प्रचार यंत्र है। वे विश्व-ब्रह्मांड के बादशाह हैं। उनकी ताकत के आगे बाकी तमाम ताकतें हार मानने को लाचार हैं। मैं महा-शक्तिशाली, जनाब बुश की बात कर रही हूँ। आजकल वे एक और खेल में उतरे हैं। उस खेल का नाम है-लड़ाई-लड़ाई! वैसे इस खेल में उनका कोई विरोधी पक्ष नहीं है। वे अकेले ही खेल रहे हैं और इस खेल में वे ही जीतेंगे, यह जान-समझकर खेल रहे हैं। यह खेल खेलने का उन्हें शौक चर्राया है। इसलिए खेल रहे हैं। शक्तिमानों के अजीबोगरीब शौक होते हैं। उनका यह खेल काफी कुछ परी कथा जैसा है! कहानी में जैसे कोई राक्षस या आदमखोर उड़कर किसी देश में जा पहुँचते हैं और देश के पेड़-पौधे, पहाड़-पर्वत खा-चबा डालते हैं, बिल्कुल उसी तरह! बुश ने घोषणा की है कि ओसामा बिन लादेन उग्रवादी है, ओसामा का अल-कायदा संगठन उग्रवादी संगठन है। मैं मानती हूँ, ओसामा उग्रवादी है, दहशतगर्द है। मैं यह भी मानती हूँ कि ओसामा का संगठन, उग्रवादी संगठन है। लेकिन ओसामा से भी बड़े उग्रवादी, क्या खुद बुश ही नहीं हैं? अल-कायदा से बड़ा उग्रवादी क्या सी आइ ए संगठन नहीं है? हमें समूची दुनिया में सी आइ ए की करतूतों को नज़र अंदाज़ नहीं करना चाहिए। सी आइ ए ने किस कायदे से विभिन्न राजनीतिक नेताओं की कत्ल की योजना बनाई है और बेहद ठंडे दिमाग से खून करती जा रही है, किस तरह तमाम दहशतगर्द नेताओं को ईंधन जुटा रही है! पेरन से लेकर पीनोश तक, मार्कोस से लेकर सुहार्तों तक, बतिस्ता से लेकर सेरन तक-इन सब उग्रवादियों को अमेरिकी प्रशासन ही मदद जटाते हैं। ओसामा बिन लादेन नामक, फ्रैंकेन स्टाइन को अमेरिका ने ही जन्म दिया है। यह सुनकर हँसी आती है कि दुनिया का नंबर वन उग्रवादी राष्ट्र उग्रवाद-विरोधी अभियान चला रहा है। इस राष्ट्र को उग्रवाद के खिलाफ कुछ कहने का क्या हक़ है? हिरोशिमा-नागासाकी ध्वंस करने के बाद, विएतनाम जला डालने के बाद, लैटिन-अमेरिका में गणहत्या और कम्यूनिस्ट नेताओं का खून करके, इराक के लाखों-लाखों निरीह लोगों को अनाज-खाद्य सप्लाई से वंचित करके, अंतर्राष्ट्रीय उग्रवाद-विरोधी अभियान की योजना बनाने जैसी भयंकर मक्कारी, सभ्यता के इतिहास में और भी कुछ है, मुझे बिल्कुल नहीं लगता। गणतंत्र-गणतंत्र का चीख-चीखकर नारे लगाना भी एक किस्म की मक्कारी ही है। अमेरिका की कोई भी उग्रवादी सरकार, अगणतांत्रिक देश सऊदी अरब और पाकिस्तान को अपनी ज़रूरत के तकाजे पर दोस्त बनाने में कभी पीछे नहीं हटी। वह पूँजीवादी देश अब धार्मिक कट्टरवाद के विपक्ष में नाक-भौं सिकोड़ रहा है। हाय रे! कट्टरवाद और पूँजीवाद का चरित्र क्या एक होता है? और कहीं से भी अभिन्न नहीं होता?
उग्रवाद दमन के नाम पर, बुश जिस खेल में उतरे हैं, उसमें बेमौत मर रहे हैं, लाखों-लाखों निरपराध इंसान। यह खेल अब यूरोप में भी संक्रमित हो उठा है। यहाँ भी अब वर्णभेद तेज़ी से बढ़ रहा है। चरम दाहिना-पंथी राजनीतिक पार्टियाँ लोकप्रिय हो उठी हैं। देश के कानून का उल्लंघन करके काले-बादामी लोगों को गिरफ्तार कर रहे हैं। उन पर बाकायदा अकथनीय अत्याचार बरसाया जा रहा है। ब्रिटेन के तमाम मंत्री समुदाय, ब्रिटेन में बसे विदेशियों से ब्रिटिश सरकार के प्रति भक्ति की माँग करने लगे हैं; यहाँ तक कि परिशीलित अंग्रेजी बोलने की भी मांग कर रहे हैं। गणतांत्रिक सरकार की ऐसी अगणतांत्रिक हरकतें देखकर भयंकर ताज्जुब होता है। संत्रास-दमन के नाम पर यूरोप और अमेरिका में एमिग्रेशन कानून इस कदर सख्त बना दिया गया है; अश्वेत लोगों के लिए अब यूरोप की सैर, लगभग असंभव हो उठेगी। चरम दाहिना-पंथी पार्टी और वर्णवादियों का सपना, अनायास ही पूरा हो गया। दीर्घ-दीर्घ सालों के आंदोलन की फसल, मानवाधिकार और मानवता धूलधूसरित हो गई। जो लोग अत्याचारी सम्राट के सैकड़ों अन्याय का विरोध कर सकते थे, वे लोग भी अपनी जुबान पर ताला जड़े हुए हैं। डर के मारे खामोश हैं। अमेरिका विरोधी कुछ भी कहना इन दिनों गुनाह है। कहीं, कोई भी देश यहाँ तक कि विभिन्न अरब देश, अन्यान्य मुस्लिम देश भी यह गुनाह करने को राजी नहीं हैं। कोई भी देश, कोई भी संगठन या कोई भी व्यक्ति अगर प्रतिवाद करता है, तो इसके नतीजे से सभी अवगत हैं, उन लोगों के सिर पर अमेरिकी जंगी विमान मँडराने लगेंगे, बड़े खूबसूरत-खूबसूरत नामोंवाले बम-वर्षण होंगे या सी आइ ए जैसे कातिल, इज़राइल की तरह एकदम से हमलावर होकर, किसी भी पल कत्लेआम शुरू कर देंगे। अब वाक-स्वाधीनता कहने लायक कछ भी नहीं बच रहा है। वाक-स्वाधीनता की मौत हो गई है। कम से कम अमेरिकी प्रचार माध्यमों में तो इसने जरूर दम तोड़ दिया है। बुश-विरोधी वक्तव्य प्रकाशित करने के जुर्म पर बहुतेरे पत्रकारों की नौकरी चली गई। अमेरिका के दो लेखक, सुजान सनटग और नॉर्मन मेलर ने अमेरिका की विदेश नीति की आलोचना की थी; उन दोनों ने सवाल उठाया था। लोग अमेरिका से नफरत क्यों करते हैं, इसका जवाब खोजने की कोशिश की थी। उन दोनों को देशद्रोही कहकर, निर्लज्ज भाव से उनकी लानत-मलामत की। दीर्घ-दीर्घ सालों के आंदोलन की फसल, वाक्-स्वाधीनता, आज सिर्फ धूल में ही नहीं लोट रही है। आम सड़क पर खून में लथपथ पड़ी हुई है। व्हाइट हाउस से हरी झंडी का संकेत पाकर चरम दाहिनापंथी जल्लाद, शेरॉन, निरीह फिलिस्तीनियों को पीस-कुचलकर निश्चिन्ह किए दे रहे हैं। अपनी आँखों के सामने ऐसी बर्बरता देखकर भी, यूरोप और अमेरिका के अधिकांश लोग इज़राइल का ही पक्ष ले रहे हैं। इज़राहल के आकाश पर उड़ान भरने के लिए फिलिस्तीन के पास जंगी-विमान नहीं हैं। इज़राइल के गाँव-शहर में विचरण करने लायक तोप-कमान भी नहीं है। फिलिस्तीनियों के पास सिर्फ जान है और प्रतिवाद के तौर पर वे लोग अंधाधुंध अपनी जान गँवा रहे हैं। अमेरिकी और इज़राइली जंगी विमानों से बम फेंके जाते हैं। किसी को अपनी जान भी नहीं देना पड़ती। आकाश में सुरक्षित जम हुए, धरती पर वे लोग असुरक्षा का खीफ रचत हैं। पाखी की नज़र से इंसानों की दुर्दशा देखना शायह वेहद खूबसूरत लगता है।
अफ़ग़ानिस्तान में जब दो अमेरिकी के हाथ या पाँव में चोट लगी थी। वह एक बड़ी घटना थी। हालाँकि वहाँ सैकड़ों अफगान लोग लाश बनकर आम सड़कों पर पड़े रहते हैं। मजार-ए-शरीफ के जेल में जिस दिन पाँच सौ अफगान मारे गए, उसी दिन एक सी आइ ए एजेंट भी मरा था। लेकिन आहज़ारी सिर्फ उस एक गोरे सी आइ ए एजेंट को लेकर शुरू हुई। यही बड़ी ख़बर भी बनी, पाँच सौ लोगों की मौत कोई घटना नहीं थी। एक गोरे का जीवन सैकड़ों अश्वेत के जीवन से ज़्यादा मूल्यवान है। हज़ारों-हजार अफ़गान मर रहे हैं। हज़ारों-हजार अफगान शिशु लैंडमाइन और क्लस्टर बम में अपनी जान गँवा रहे हैं: पंग हो रहे हैं, वह सब बेशकीमती जीवन प्रचार-माध्यम में कोई घटना ही नहीं है। उलट-पलट तो तब होता है, जब किसी श्वेत की मृत्यु होती है। जॉन वाकर नामक एक गोरा अमेरिकी नागरिक - मज़ार-ए-शरीफ के जेल में बंद था। क्योंकि उसने तालिबान के पक्ष में जंग की थी। लेकिन जेल के नियम का उल्लंघन करके, उसे आराम से उठाकर अमेरिकी सरकार उसे किसी सरक्षित जगह पर ले आई। क्यों? इसलिए कि जॉन वाकर गोरी चमड़ी था? अगर उस जेल में कोई बंगाली, लेकिन अमेरिकी नागरिक होता तो क्या अमेरिकी सरकार उसका उद्धार करती। हरगिज नहीं। कहा यह गया कि जॉन वाकर शायद किसी और के सलाह-मशविरे पर गुमराह हो गया और तालिबान बन गया। यही बात दूसरे-दूसरे तालिबान योद्धाओं के संदर्भ में भी कही जा सकती है। लेकिन वह तो नहीं कहा जा रहा है। यह विषमता और असमता, हम सभी को देखना पड़ रही है। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर की जगह पर कोई विशाल स्मारक बनने वाला है। वहाँ तीनै हजार लोग भी नहीं मरे और वहाँ स्मारक बनेगा। सर्व और क्रोएट लोगों ने ढाई लाख बेसनियन को मार डाला। किसी ने भी वहाँ स्मारक बनाने का जिक्र नहीं छोड़ा। रूयाल्ड में लगभग नौ लाख लोग मर गए, कहाँ है स्मारक?
एन्थ्रेक्स की जिस घटना ने दहशत फैलाई थी, वह अभी भी पूरी तरह मरी नहीं है। एन्थ्रेक्स अमेरिका से ही फैलाया जा रहा है, यह जानने के बाद भी, एन्थ्रेक्स के बहाने इराक पर अमेरिका की तरफ से हमला करने की वासना कम हो गई है, ऐसा नहीं है। दूसरे महायुद्ध के समय अमेरिका ने जीवाणु-अस्त्र निर्माण के मामले में रिसर्च शुरू की थी। उस रिसर्च में बंदी जापानियों को इस्तेमाल किया गया। उन लोगों के शरीर में जीवाणु घुसाकर, जाँच-परख करके ही तो वैज्ञानिकों ने एन्थ्रेक्स नामक प्राणनाशक जीवाणु का आविष्कार किया और उसे युद्धास्त्र के तौर पर इस्तेमाल करने के लिए पेश किया। वैसे बाद में वहाँ की सरकार ने इस अस्त्र का निर्माण निषिद्ध कर दिया, क्योंकि यह अस्त्र अगर एक बार इस्तेमाल किया गया और अगर बाहरी दुनिया को इस गुप्त खबर की जानकारी मिल गई कि अति सस्ते में एन्थ्रेक्स तैयार करना संभव है, तो सर्वनाश हो जाएगा। अगर अन्य देशों को यह पता चल गया कि इसका निर्माण वेहद सस्ता है तो कोई भी देश यह जानलेवा अस्त्र-शस्त्र तैयार कर सकता है। प्राणनाशक अस्त्रों के निर्माण की क्षमता और किसी की भी न रहे, बस, एकमात्र अमेरिका की रहे। सैकड़ों किस्म के आणविक, परमाणविक, अमानविक बम बनाने का अधिकार और क्षमता किसी महाशक्ति को ही होनी चाहिए। अगर यह अधिकार और क्षमता किसी और के पास भी रही, तो महाशक्ति में ज़रा कमज़ोर पड़ जाएगी और अमेरिका भला ऐसा क्यों चाहेगा? उसे तो यह डर है कि जाने किस तरफ जाने कौन यह सस्ता-संभव अस्त्र ढेरियों में बना डाले। इसलिए अस्त्र सिर्फ मेरे पास रहे, तुम्हारे पास क्यों रहे, यही दंभ और आहाद दिखाकर अमेरिका इराक को छोड़ देगा, ऐसा नहीं लगता। इसी मौके का फायदा उठाकर, क्यूबा या लीबिया को काट खाने के लिए अमेरिका घात लगाए बैठा है।
हालाँकि-अरब देशों के चंद नेताओं ने अनुरोध किया था कि अफ़ग़ानिस्तान पर बम न बरसाया जाए, बुश साहब ने किसी के भी अनुरोध की परवाह नहीं की। परवेज़ मुशर्रफ ने भी कहा था कि कम से कम रोजे के दिनों में बम बरसाना बंद रखा जाए, लेकिन बुश सरकार ने यह अनुरोध भी नहीं माना। चूँकि उन लोगों की बात नहीं मानी गई, इसलिए किसी ने बुश की हरकतों का विरोध किया, ऐसा भी नहीं हुआ। सभी ने सविनय सर झुका दिया। किसमें इतनी ताकत है कि इस साम्राज्यवादी दैत्य के खिलाफ चूँ तक करे? अफ़ग़ानिस्तान के नए नेता, हामिद करज़ई ने भी शुरू-शुरू में खासा डंका पीटा था कि कान्धार में तालिबानों ने आत्मसमर्पण कर दिया है। अब उन लोगों को माफ कर दिया जाए। लेकिन हामिद करजई, अफ़ग़ानिस्तान के सरकार-प्रधान तो हो गए, मगर अफ़ग़ानिस्तान के मामले में उनका कोई फैसला लागू किए जाने का सवाल ही नहीं उठता। अमेरिका ने हामिद करज़ई का प्रस्ताव उड़ा दिया। हामिद करजई ने भी भावी ख़तरे को पहचान लिया और अपना प्रस्ताव खुद ही हजम कर गए। यही कहना बेहतर होगा कि इसे हजम करने को वे लाचार हो गए।
और एक मसखरी हुई है, लादेन का वीडियो लेकर! ग्यारह सितंबर के हमले के पीछे बिन लादेन ही था, कहा जा रहा है कि वह वीडियो, इसी का सबूत है! लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में दो महीनों तक बम बरसाने के बाद, अब सबूत हाज़िर करने की क्या वजह है? कहा यह गया कि सबूत तो अमेरिका के हाथ में पहले से ही मौजूद था। काफी बड़े-बड़े सबूत! तो सब सबूत पेश करने के बजाय, अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान में बम बरसाने की स्पर्धा दिखाई। बम बरसाने से पहले यह तो प्रचारित कर ही दिया गया था कि इसके लिए बिन लादेन कसूरवार है। ऐसे में दोष प्रमाणित करने के लिए एक अदद कमजोर-सी वीडिओ, लोगों को दिखाना क्या निरर्थक नहीं है? सज़ा देने का सिलसिला ख़त्म होने के बाद, प्रमाण हाज़िर करना पूरी तरह फ़िजूल है। ऐसी एक वीडिओ, जिसमें संवाद समझ में आना ही दुरूह है, जिसका अनुवाद पढ़कर भी समझने का कोई उपाय नहीं है, बिन लादेन ने उस हमले का एक ब्लू-प्रिंट आँका है, क्योंकि बिन लादेन को कुल पाँच दिनों पहले हमले की जानकारी मिली। वहाँ हमला करने की तैयारी पिछले पाँच सालों से चल रही थी। यही वीडिओ अमेरिका के हाथ में है, जो बिन लादेन को कसूरवार साबित करने का सबसे जबर्दस्त प्रमाण है। बुश ने कहा है कि लोग अपनी आँखों से जब यह वीडिओ देखेंगे, तो समझ सकेंगे कि अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान पर बम बरसाकर, कोई गलती नहीं की। ओसामा को खोज निकालने के बहाने, उन्होंने जो हज़ारों-हज़ार निरीह अफ़गानियों का खून करके, बुश ने कोई गलती नहीं की, लोग-बाग यह समझ लें! लेकिन लोगों को क्या यही समझना चाहिए? यह भी कहा गया कि उस वीडिओ का प्रचार करने में वे देर कर रहे हैं। वर्ल्ड ट्रेड सेंटर में जिन लोगों की जानें गई हैं, उनके नाते-रिश्तेदार वह वीडिओ देखकर आहत होंगे। बहरहाल, इस नाटक में बुश साहब ने अभिनेता के तौर पर काफी कच्ची यानी लचर भूमिका निभाई है! उन्होंने कहा है-'उफ! कितने भयंकर तरीके से उस दानव ने अपने गुनाह का बयान दिया है!'
हाय! उस वीडिओ में ओसामा क्या दानव जैसा दिखता है। उसके मुकाबले बुश का चेहरा ही भयंकर दानव जैसा लगता है, जब वे युद्ध का हुक्म देते हैं; निरपराध जनता पर बम-वर्षण करने का हुक्म देते हैं; जब एक देश में ध्वंस-यज्ञ ख़त्म होते ही, वे किसी दूसरे देश में युद्ध-यज्ञ शुरू करने की योजना बनाते हैं। अमेरिका क्या वाकई चाहता है कि ओसामा बिन लादेन पकड़ा जाए? या उसे गिरफ्तार करने क नाम पर वह समूची दुनिया में अपना आधिपत्य विस्तार करना चाहता है? यह समझने में कतई असुविधा नहीं होती कि यह युद्ध साम्राज्यवादी युद्ध तालिबान को सबक देने या अल-कायदा के सदस्य या बिन लादेन को सज़ा देने के लिए छेड़ा गया युद्ध नहीं है। बिन लादेन या अल-कायदा निहायत बहाना भर है। किसी भी अशुभ काम में अमेरिका को कभी भी, किसी भी बहाने की कमी नहीं होती।
यह युद्ध तो अमीरों का युद्ध है, गरीबों के खिलाफ! यह युद्ध संबल का निर्बलों के खिलाफ़ है। यह युद्ध श्वेत का अश्वेत के खिलाफ है। इन दिनों इस्लामी कट्टरवाद अव प्रासंगिक नहीं रहा। प्रासंगिक है, दुनिया के एकमात्र आधिपत्य लोभी महाशक्ति का प्रलाप भर! जो थोड़ा-बहुत विवेक बच रहा था, वह तो गया ही, अगर विवेक न भी होता, तो कम से कम इसके प्रदर्शन की ज़रूरत समझी जाती, वह भी गई-इसका भी शक्तिधर ताकतों को अहसास नहीं है। सीधा-सीधा हिसाब है-कुत्सित राक्षस का चेहरा सामने रख दो, इसकी पूजा करो, सिर झुकाकर नमन करो। अगर नहीं किया, तो सर कलम कर दिया जाएगा।
लेकिन युद्ध की सच्ची विजय क्या बमबाजी से होती है? नहीं होती! गरीबों की भूख क्या बम के साथ झरे हुए पीले पैकेट की 'पी नट बटर' से जा सकती है? नहीं जाती! वंचित, निपीड़ित, अत्याचारित का क्षोभ क्या अत्याचारी की चिकनी-चुपड़ी मीठी बातों से जा सकता है? हरगिज़ नहीं!
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